श्री कृष्ण के श्रीमुख से उद्धरित गीता हमें सिखाती है कि इन्द्रियों को वश में करना अति आवश्यक है अन्यथा मन में भोग, विलास, ऐश्वर्य की इच्छा और लालच बढ़ता जाता है। पूर्ण न होने पर क्रोध होगा, जो बुद्धि और विवेक नष्ट कर देगा। मोह-माया के कारन पतन अवश्यम्भावी है। योगी न सिर्फ इन्द्रियों और मन को वश में कर लेते हैं वल्कि आरोग्यवान और दीर्घजीवी भी होते हैं। गीता शास्त्र सम्पूर्ण मानव जाति के उद्धार के लिए है। कोई भी व्यक्ति किसी भी वर्ण, आश्रम या देश में स्थित हो, वह श्रद्धा भक्ति-पूर्वक गीता का पाठ करने पर परम सिद्धि को प्राप्त कर सकता है। अत: कल्याण की इच्छा करने वाले मनुष्यों के लिए आवश्यक है कि वे गीता पढ़ें और दूसरों को पढायें। यही कल्याणकारी मार्ग है। ईशोपनिषद में उल्लेखित है कि
“ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥”
अर्थात “इस वैश्व गति में, इस अत्यन्त गतिशील समष्टि-जगत् में जो भी यह दृश्यमान गतिशील, वैयक्तिक जगत् है-यह सबका सब ईश्वर के आवास के लिए है। इस सबके त्याग द्वारा तुझे इसका उपभोग करना चाहिये; किसी भी दूसरे की धन-सम्पत्ति पर ललचाई दृष्टि मत डाल।” Means “All this is for habitation by the Lord, whatsoever is individual universe of movement in the universal motion. By that renounced thou shouldst enjoy; lust not after any man’s possession.”